आज से लगभग 1400 वर्ष पुरानी बात है। विक्रम की छठी शती में एक पात्रकेसरी नाम के धुरंधर वैदिक विद्वान थे। वे न्याय, व्याकरण, वेद, उपनिषद, आदि अनेक विषयों के प्रकाण्ड पंडित थे। उनकी विद्धता पूरी दुनिया में विख्यात थी। उनके एक से बढ़कर एक पाँच सौ शिष्य भी थे।
एक दिन की बात है कि वह न्यायशास्त्र में हेतु का सही स्वरूप क्या है-इस विषय पर बहुत गहरा चिंतन कर रहे थे और बहुत मेहनत करके भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे। उन्होंने बहुत सोचा कि बौद्ध दर्शन में हेतु को तीन रूप माना गया है. क्या वह सही है? अथवा न्याय दर्शन में हेतु को पाँच रूप माना गया है, क्या वह सही है? आखिरकार कुछ भी निर्णय नहीं हो सका और वह चिंता-सागर में डुबकी लगाते-लगाते रात्रि में सो गये।
स्वप्न में उनको देवीं पद्यावती ने दर्शन दिये और कहा कि तुम जिस विषय को समझने की चिंता में व्यथित हो, उसका समाधान मैंने सीमंचर त्वामी से पूछकर मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथ के फण पर लिख दिया है। तुम सुबह देख लेना।
प्रातः काल वे मन्दिर में गये. तो यहां निम्नलिखित श्लोक लिखा हुआ था -दरारानुपपन्नाले पर तत्र वरीण किम्? नान्ययानुपपन्नले पर तत्र तरीण किम्?""
(यह श्लोक गाँव वाले मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथ जी की मूर्ति के फण पर लिखा है।)
इस श्लोक को पढ़कर पात्रकेसरी स्वामी भाव-विभोर हो गये, उन्हें जिसकी खोज थी, वह मिल गया। वे प्रसन्न हो गये। इस एक श्लोक ने ही उनका जीवन बदल दिया, उन्होंने जैनदर्शन स्वीकार कर लिया, उनके साथ उनके पाँच सौ शिष्यों ने भी बिदक मत छोड़कर जैन मत अपना लिया। जिस प्रकार भगवान महावीर के समय में गौतम गणधर के जैन बनने की घटना घटी नी, आज उसकी मानों पुनरावृत्ति हो रही थीं।